केशवानंद भारती केस एक परिचय

 केशवानंद भारती केस एक परिचय 

(1)केशवानंद भारती केस की पृष्ठभूमि

भारत में महत्वपूर्ण संवैधानिक और न्यायिक परिवर्तन के सूत्रधार केशवानंद भारती एक ऐसा नाम है जिससे संवैधानिक और न्यायिक इतिहास में रुचि रखने वाला हर एक व्यक्ति परिचित है। केशवानंद भारती जी ने केरल का शंकराचार्य कहा जाता था वह केरल के सबसे उत्तरी जिले काश रोड के ऐड नीर के एक मठ के महंत थे जो आदि गुरु शंकराचार्य से संबंधित है   इस मठ के  प्रधान होने के कारण उन्हें आधुनिक केरल का शंकराचार्य कहा जाता हैं । केशवानंद भारती ने महज 19 साल की उम्र में संयास ले लिया और 20 की उम्र में मठ के प्रधान की  जिम्मेदारी ली।
दरअसल जिस मठ के केशवानंद भारती महंत बने उस मठ का करीब 1200 साल पुराना समृद्ध इतिहास है इस संभाग इतिहास के साथ इस मठ के पास कई एकड़ जमीन थी तत्कालीन समय में जब केरल सरकार ने भूमि सुधार आंदोलन की शुरुआत की तो इस भूमि सुधार के तहत सरकार ने मठ कि जमीन का भी अधिग्रहण कर लिया ।
केरल के मठ प्रमुख होने के नाते केसवानंद भारती ने 1970 में इस भूमि अधिग्रहण के विरूद्ध केरल हाई कोर्ट में याचिका दायर की और अनु 26 का  हवाला देते हुए  मांग की थी कि उन्हें अपने धार्मिक संपदा के प्रबंधन का अधिकार है इस तरह उन्होंने अनुच्छेद 31 में प्रदत संपत्ति के मूल अधिकार पर प्रतिबंध लगाने वाले केंद्र  24 वे 25 वे 29 वे संविधान संशोधन को चुनौती दी पर केरल हाईकोर्ट से केसवानंद को कोई राहत नहीं मिली फिर आखिरकार यह मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष गया। 

बड़ा संवैधानिक बदलाव 

              इस मामले की पृष्ठभूमि में एक बड़ा संवैधानिक प्रश्न शीर्ष  न्यायालय के समक्ष आया कि क्या संसद के पास संविधान संशोधन के जरिए मौलिक अधिकारों सहित किसी अन्य हिस्से  में असीमित संशोधन का अधिकार है या नहीं , इस तरह इस मामले पर सुनवाई हेतु सबसे बड़ी पीठ  बनाई गई जिसकी 1972 के अंत में लगातार 68 दिनों तक लगातार सुनवाई चली अंत में 703 पृष्ठ के लंबे फैसले में केवल एक वोट के अंतर से शीर्ष अदालत ने केसवानंद भारती के विपक्ष  में फैसला सुनाया यह फैसला 7: 6 से दिया गया  । हालांकि इस सुनवाई में के सोनम को व्यक्तिगत राहत  तो नहीं मिली लेकिन एक बहुत बड़े संवैधानिक  बदलाव की नींव पड़ी। इस फैसले के बाद न्यायालय ने माना कि संसद मौलिक अधिकारों में तो संशोधन कर सकती है लेकिन ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती जिससे संविधान के मूल ढांचे में कोई परिवर्तन होता हो 

निष्कर्ष 

           इस फैसले ने यह स्थापित किया कि देश में संविधान से ऊपर कोई नहीं है इस ने संसद की संविधान संशोधन शक्ति पर कुछ सीमाएं लगाई इस तरह केशवानंद भारती को संविधान का रक्षक कहा जाता है और भारत केउ संवैधानिक इतिहास में उनका नाम चिरस्थाई है । 
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