मानगढ़ हत्याकांड तथा खरसावां गोलीकांड

नमस्कार साथियों,

एक बार फिर से आपका स्वागत है सकारात्मकता की दुनिया "संप्रभा" में। आज हम बात करेंगे मानगढ़ हत्याकांड और खरसावां गोलीकांड के बारे में।

अब आप सोच रहे होंगे कि इसमें सकारात्मक क्या है तो साथियों मैं बता दूं कि इसमें सकारात्मक अपने हितों की रक्षा के लिए लड़ रहे लोगों की मजबूती, आत्मविश्वास, दृढ़ संकल्प, संघर्ष, और अपने साथ गलत हो रहे व्यवहार के खिलाफ लड़ने का साहस सकारात्मक है ।


अब हम पढ़ते हैं सबसे पहले मानगढ़ हत्याकांड 

एक जलियांवाला बाग राजस्थान गुजरात में भी

13 अप्रैल 1919, जलियांवाला बाग, अमृतसर, पंजाब, इस घटना को तो शायद पूरे भारतीय लोग जानते होंगे पर ऐसा ही दर्दनाक और वीभत्स हत्याकांड राजस्थान और गुजरात की सीमा पर स्थित मानगढ़ की पहाड़ी पर अंग्रेजों ने 17 नवंबर 1913 को किया जिसमें1500 से ज्यादा भीलो को मौत के घाट उतार दिया गया।

क्यों हुआ मानगढ़ हत्याकांड 

गोविंद गुरु,एक सामाजिक कार्यकर्ता थे तथा आदिवासियों को जागरूक करने का काम करते थे इन्होंने 1890 में एक आंदोलन शुरू किया। जिसका नाम दिया गया "भगत आंदोलन" इसका मुख्य उद्देश्य आदिवासियों को जागरूक करना और उन में फैली नशे की लत को दूर करना था। इस आंदोलन को मजबूती प्रदान करने के लिए गुजरात से एक धार्मिक संगठन आगे आया यह संगठन भीलों से कराई जा रही बंधुआ मजदूरी के खिलाफ काम करता था इस आंदोलन से अलग - अलग गांव से 5 लाख आदिवासी भील जुड़ गए थे।

1903 में गोविंद गुरु ने मानगढ़ को आंदोलन के लिए चुना और वहां से अपना सामाजिक आंदोलन जारी रखा और 1910 तक आते-आते भी लो ने अंग्रेजों के सामने लगभग 33 मांगे रखें।जिनमें मुख्य रजवाड़ों द्वारा करवाई जा रही बंधुआ मजदूरी और लगन से जुड़ी मांगी थी और धीरे-धीरे ही है आंदोलन विशाल रूप लेता गया फिर अंग्रेजों ने गोविंद गुरु को गिरफ्तार कर लिया। कुछ समय बाद अंग्रेजों ने गोविंद गुरु को रिहा कर दिया।

अंग्रेजों ने उनकी मांगे नहीं मानी। और उन पाठशालाओं को भी बंद करवा दिया जहां से आदिवासी बेगारी के विरोध की शिक्षा लेते थे। इसके बाद आदिवासियों में गुस्सा और बढ़ गया और वह आंदोलन को विस्तार करने के लिए मानगढ़ की पहाड़ी पर एकत्रित होना शुरू हो गए।

इन्हीं दिनों एक घटना घटी। गुजरात के लोग थानेदार गुल मोहम्मद के अत्याचारों से परेशान होकर। गोविंद गुरु के सबसे नजदीकी सहयोगी के साथ मिलकर थानेदार गुल मोहम्मद की हत्या कर देते हैं।

अंग्रेजों को एक और बहाना मिल गया और 17 नवंबर 1913 को अंग्रेजों ने मानगढ़ पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया और खच्चरों के ऊपर बंदूके लगाकर पहाड़ी के चक्कर लगवाए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग मारे जाए। इस घटना में लगभग 1500 से ज्यादा लोग मारे गए और ना जाने कितने ही घायल हुए।

खरसावां गोलीकांड 

भारत की आजादी के करीब 5 महीने बाद जब देश 1 जनवरी 1948 को आजादी के साथ-साथ नए साल की खुशियां मना रहा था। तब खरसावां में गोली कांड हुआ इसलिए खरसावां गोलीकांड को आजाद भारत का जलियांवाला बाग भी कहा जाता है।

खरसावां गोलीकांड क्यों हुआ

"खरसावां " आदिवासी बहुमत वाला क्षेत्र था जो उस समय एक रियासत हुआ करता था तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल थे जिन्होंने भारत की सभी रियासतों को तीन श्रेणियों में बांटा था "A" श्रेणी में सभी बड़ी रियासतें "B" श्रेणी में मध्यम और "C" श्रेणी में सभी छोटी रियासतें थी। खरसावां भी एक छोटी रियासत थी। ओडिशा में उड़िया भाषा बोलने वालों की संख्या ज्यादा थी। जिस वजह से गृह मंत्री जी खरसावां और सरायकेला रियासतों को ओडिशा में विलय कर देना चाहते थे।

उस समय झारखंड राज्य का आंदोलन तेजी से बढ़ रहा था। खरसावां और सरायकेला के आदिवासी ओडिशा में शामिल होना नहीं चाहते थे।

बहुत अधिक भारतीयों को तो यह भी पता नहीं होगा कि आजाद भारत में ओडिशा मिलिट्री पुलिस द्वारा खरसावां रियासत के आदिवासियों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी वह भी इसलिए की वह लोग अलग आदिवासी राज्य की मांग कर रहे थे।

वर्तमान झारखंड राज्य के जमशेदपुर शहर से लगभग 65 किलोमीटर दूर खरसावां में 1 जनवरी 1948 को एक भयानक गोली कांड हुआ था आज तक भी वहां के लोग नई साल नहीं मनाते हैं वह इस दिन को काले दिवस के रूप में मनाते हैं।

इस भयानक गोलीकांड का मकसद यह था कि "खरसावां रियासत" को ओडिशा राज्य में विलय करते हुए स्थानीय आंदोलनकारियों को रोका जा सके। उस समय बिहार के आदिवासी नहीं चाहते थे कि खरसावां रियासत ओडिशा का हिस्सा बने खरसावां का ओडिशा में विलय के विरोध में लगभग 50 हजार आदिवासी खरसावां में इकट्ठे हुए इस सभा में हिस्सा लेने के लिए जमशेदपुर, रांची, सिमडेगा, खूंटी, तामड़ , और दूरदराज के इलाके के आदिवासी आंदोलन स्थल पर आए इस आंदोलन को लेकर उड़ीसा सरकार काफी चौकस थी और वह खरसावां में किसी भी हालत में सभा नहीं होने देना चाहती थी। इसी बीच आंदोलन के मुख्य लीडर "जयपाल सिंह मुंडा" सभा में नहीं आए। जिसके कारण लोगों में आक्रोश था और पुलिस किसी भी तरीके से भीड़ को रोकना चाहती थी लेकिन अचानक से ओडिशा मिलिट्री पुलिस ने भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग करना शुरू कर दिया इस बीच सैकड़ों लोगों की जान गई। ओडिशा पुलिस लाशों को ट्रकों में भरकर जंगल में फेंक रही थी और खरसावां के पास वाले कुए मैं लाशों को भर रही थी मामला शांत होने पर ओडिशा पुलिस ने 35 लोगों के मारे जाने की ही सूचना दी।

अब दोस्तों बात करते हैं कि इन दोनों घटनाओं में सकारात्मक क्या है?

दोस्तों यह दोनों घटनाएं आदिवासियों की है और यह दोनों घटनाएं हमारे देश की मुख्य घटनाओं में से है और दोस्तों आपको भी पता है कि यह घटनाएं जब घटित हुई तब आदिवासियों का शारीरिक एवं मानसिक शोषण किया जाता था उनके साथ भेदभाव किया जाता था और जैसा कि हमने पहली घटना में पढ़ा कि आदिवासी भील समुदाय के लोगों से बद्दुआ मजदूरी कराई जा रही थी और उनका उनको पारिश्रमिक भी नहीं दिया जा रहा था इस घटना में उन लोगों ने लंबे समय तक संघर्ष किया और हार नहीं मानी यह सकारात्मक है।

यहां हम उन लोगों के संघर्ष, आत्मविश्वास, गलत का विरोध करने की हिम्मत, अपने अधिकारों के लिए लड़ने की ताकत, और गलत को परिवर्तित करने का जुनून।

इस पोस्ट के माध्यम से आप सभी तक पहुंचाना चाहते हैं।

REFERENCE 

मानगढ़ जनसंहार : इतिहास में दफन सबसे बड़ी कुर्बानी

"Descendants of Mangad massacre seek recognition for past tragedy" .

शोधकर्ता

मोहन चौधरी

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